पृथ्वी है स्वर्ग से बढ़ कर


असत्य के पथ पर अंधकार का अहंकार तुझे है
क्रूरता की उपासना, मानवता का तिरस्कार तुम करते।  

संख्या कम तब बोलें मीठ, संख्याबल हुआ तुम करते अत्याचार।
तेरे नारे आज भी कहते, किया जो तूने रक्तपात और नरसंहार।  

संस्कृति त्यागी त्यागे पुरखे, ख़ून से लतपथ माँ का आँचल। 
प्यासे तन को पानी चाहे, पर तुझे हुई है रक्त की प्यास।

खोई मानवता जगा असुर, काटे हैं तूने अपनो के सर।
नारी शक्ति से जन्मा और हुआ बड़ा, पर नारी को किया क़ैद।

माँ के अंदर सागर सी ममता, तूने अंध में माँ को छोड़ा।  
आँखें खोल तू है भटका, लौट के माँ कर देगी माफ़।

अभी समय है लौट के जा, संस्कृति और परिवेश में जा।  
त्याग क्रूरता आतंक का पथ, मानवता को फिर से अपना ले।  

जीवन के जो भी पल हैं, उनको तू हंस बोल के जी ले।
स्वर्ग नर्क का पता नहीं, पर अपनी पृथ्वी है स्वर्ग से बढ़ कर।

No comments:

Post a Comment