ये बच्चे उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के गरीब परिवारो से हैं. इन गरीब बच्चो को दो समय का भोजन बड़ी मुश्किल से नसीब हो पाता है, गरीब परिवारो के लिए सरकार द्वारा दिया अनाज भी इन गरीबों तक पहुचने से पहले ही गायब हो जाता है. आज इकीसवीं सदी में भी शिक्षा और अवसर इनके लिए एक सपने जैसा है.
दलित
वह नहीं है जो धन और संसाधन संपन्न जीवन जीता है और अपने बच्चे को महंगे
प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजता है. दलित वह है जो दो वक़्त के
भोजन के लिए पसीना बहाता है, वो जो अपने बच्चो को गरीबी की के कारण किसी
अच्छे स्कूल में नहीं भेज पाता है, वो जो समाज में फैले ऊँच और नीच के जहर
से लड़ता है, दलित वो है जिसके सपने संसाधन और अवसर के अभाव में टूट जाते
हैं.
आज
समाज में दो तरह के दलित हैं एक वो जो धन और संसाधन संपन्न हैं, फिर भी
बच्चो की अच्छी शिक्षा और उज्जवल भविष्य के स्वार्थ में ये भूल जाते हैं की
जब वो अपने बच्चो को दलित बनाकर उच्च शिक्षा या रोजगार के लिए भेजते हैं
तब एक गरीब दलित माँ के संतान के अधिकार का हनन होता है जो बेचारा गरीबी
में झुलस रहा है. उस गरीब दलित माँ के बेटा/बेटी का नुकसान होता है जिन्हे
अच्छा स्कूल नसीब नहीं हुआ. किसी दलित गरीब माँ का बेटा/बेटी जब उच्च
शिक्षा और रोजगार के लिए बाहर निकलता है तो वो देखता है की उसे किसी
सामान्य कहे जाने वर्ग से नहीं बल्कि उस तथाकथित दलित से मुक़ाबला करना है
जिन्हे पुरे जीवन कभी किसी संसाधन की कमी नहीं थी और जो अच्छे स्कूलों में
पढ़े लिखे हैं.
वैसे
तो दलित के नाम पर अपनी राजनितिक और सामाजिक दूकान चलाने वाले बहुत हैं पर
बड़े दुःख की बात है की गरीब दलित के लिए आवाज़ उठाने के लिए कोई खड़ा
नहीं हो रहा. खैर मेरा विषय गरीब दलित बनाम अमीर दलित नहीं है. हाँ यह एक
बड़ी समस्या है और इस पर लोगों को विचार करना चाहिए.
हमारे
लिए बड़े ही शर्म की बात है की पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता, आज समाज में
फैले इस जातिवाद के ऊँच नीच के जहर को खत्म नहीं कर पा रही है. वो सभ्यता जिसने कभी
चद्र गुप्त मौर्या को भारत का राजा बनाया था. वो सभ्यता जिसके गुप्त काल
में भारत सोने की चिड़िया कही जाती थी. वही सभ्यता जिसके गुप्त काल में
भारत ने दुनिया को शुन्य 0 दिया, विश्व को गिनती सिखाया. वही सभ्यता जिसमे
तक्षशिला और नालंदा नाम के विश्वविद्यालय हुआ करते थे. इस भारत में पूरी
दुनिया से लोग पढ़ने आते थे. फिर ऊँच नीच का जहर कहाँ से आया और हमारे
अपने लोग दलित क्यों कहे जाने लगे.
किसी
भी वेद में ऊँच और नीच का जिक्र नही किया गया है, ऋग्वेद में वर्ण के बारे
लिखा है पर वर्ण में कार्यों का वर्गीकरण किया गया है. जैसे की आज हमारे
कार्य को वर्गीकृत किया है, कोई डॉक्टर है कोई इंजीनियर है, कोई किसान है,
कोई सैनिक है, कोई अध्यापक है इसमें ऊँच नीच कहाँ है.
कार्यों का वर्गीकरण दुनिया के कई हिस्सों में था. आज भी यूरोप के लोगो के नाम में पॉटर "Potter" वर्षो पहले जिनके पूर्वज Pottery यानि बर्तन के काम करते थे, स्मिथ "Smith" जिनके पूर्वज लोहे का काम करते थे, Miller जिनके पूर्वज मिल अनाज का मिल चलाते थे, Shepherd जिनके पूर्वज भेड़ पालन करते थे, Thatcher जिनके पूर्वज झोपड़ के मकान बनाते थे. कार्य पर आधारित ऐसे कितने उपनाम आज भी मिलते हैं. ऐसा ही हमारे यहाँ हुआ. पहले जिसके पूर्वज जो भी काम करते थे उसके आधार पर उनके उपनाम बने और वो अभी तक चल रहे हैं. कोई गुप्ता लिखता है तो चतुर्वेदी लिखता है, कोई विश्वकर्मा लिखता है तो कोई वर्मा लिखता है. इसमें ऊँच नीच की कोई जगह ही नहीं थी सब अपना अपना कार्य करते थे. कोई कार्य छोटा बड़ा नहीं था. सब सबकी जरुरत थे.
कार्यों का वर्गीकरण दुनिया के कई हिस्सों में था. आज भी यूरोप के लोगो के नाम में पॉटर "Potter" वर्षो पहले जिनके पूर्वज Pottery यानि बर्तन के काम करते थे, स्मिथ "Smith" जिनके पूर्वज लोहे का काम करते थे, Miller जिनके पूर्वज मिल अनाज का मिल चलाते थे, Shepherd जिनके पूर्वज भेड़ पालन करते थे, Thatcher जिनके पूर्वज झोपड़ के मकान बनाते थे. कार्य पर आधारित ऐसे कितने उपनाम आज भी मिलते हैं. ऐसा ही हमारे यहाँ हुआ. पहले जिसके पूर्वज जो भी काम करते थे उसके आधार पर उनके उपनाम बने और वो अभी तक चल रहे हैं. कोई गुप्ता लिखता है तो चतुर्वेदी लिखता है, कोई विश्वकर्मा लिखता है तो कोई वर्मा लिखता है. इसमें ऊँच नीच की कोई जगह ही नहीं थी सब अपना अपना कार्य करते थे. कोई कार्य छोटा बड़ा नहीं था. सब सबकी जरुरत थे.
पर
जब हमारी भारतीय सभ्यता में ये ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसी बुराई नहीं थी
तो फिर ये आई कहाँ से. ये जहर उस दिन से इस देश बोया जाने लगा जिस दिन
विदेशी लुटेरों ने भारत पर अपने कदम रखे. इतने विशाल, शिक्षा, सभ्यता और
संस्कार की इस धरती को जीतना संभव नहीं था. भारत पर राज करने के लिए भारत
के लोगों को ऊँच-नीच में तोडना उनकी सोची समझी रणनीति थी. मंगोल, अरब, अफगान और तुर्की के आतंकी लुटेरों के साथ कुछ हमारे अपने
लालची और स्वार्थी लोग इस पाप "तोड़ो और राज
करो" के भागीदार बने. समाज को बाटा जाने लगा
ऊँच-नीच का जहर बोया गया. समाज का तबका वो जो समाज हर जरुरत को पूरा करता
था, अन्न की खेती हो, सफाई हो, किसी का घर बनाना हो, किसी बर्तन बनाना हो,
या किसी के कपडे बनाने हो. वो तबका जो समाज की सेवा करता था, उसको नीच
बोलकर समाज में नीचे धकेल दिया. हमारे अपने ही हमारे अपनों लोगों का शोषण
करने लगे.
मानवता पर इतना बड़ा कलंक लगा. सोची समझी रणनीति के तहत, एक बड़े तबके को कलम और तलवार से दूर रखा गया और इसका मूल्य भारत को चुकाना पड़ा. शक्तिशाली और सम्पन्न भारत को गुलामी के अँधेरे में जीना पड़ा. आखिरी में जब अंग्रेज आये उनके लिए तो बहुत आसान था भारत पर राज करना क्योंकि भारत पहले ही जातियों में टूटा हुआ था. उन्होंने उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भारत को हिन्दू मुसलमान में भी बाटा. क्योंकि हमारी तो आदत हो गयी थी आपस में बटने की. 1947 में गोरे तो गए और भूरे आ गए. और ये भूरे राजनेता उसी बाटने वाली परंपरा को निभा रहे हैं, तोड़ो और राज करो.
मानवता पर इतना बड़ा कलंक लगा. सोची समझी रणनीति के तहत, एक बड़े तबके को कलम और तलवार से दूर रखा गया और इसका मूल्य भारत को चुकाना पड़ा. शक्तिशाली और सम्पन्न भारत को गुलामी के अँधेरे में जीना पड़ा. आखिरी में जब अंग्रेज आये उनके लिए तो बहुत आसान था भारत पर राज करना क्योंकि भारत पहले ही जातियों में टूटा हुआ था. उन्होंने उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भारत को हिन्दू मुसलमान में भी बाटा. क्योंकि हमारी तो आदत हो गयी थी आपस में बटने की. 1947 में गोरे तो गए और भूरे आ गए. और ये भूरे राजनेता उसी बाटने वाली परंपरा को निभा रहे हैं, तोड़ो और राज करो.
ये
इक्कीसवी सदी है. क्या अब भी लोग हमें बाटते रहेंगे और हम बटते रहेंगे?
"जागो भारत जागो" केवल किसी गीत की पंक्ति ही नहीं बल्कि हमारे अंतरात्मा
की आवाज होनी चाहिए. हमें उस गरीब, दलित, किसान, मजदूर का सम्मान करना
चाहिए जो हमें अन्न देता है, जो हमारी सेवा करता है और जो हमारे गावं शहर
को साफ़ रखता है. वो दलित नहीं, ईश्वर के रूप हैं.
एक भारत, श्रेष्ठ भारत.