नाम अमर रहे

कोई इसमें परेशान है कि वो धनी अमीर कब बनेगा। जो धनी है उसकी चिंता कि उसका शुगर, बीपी, बैक या घुटने का दर्द कैसे और कब ठीक होगा। जिसका खुशहाल परिवार है उसको अलग चिंता और जिसके घर में दुःख उसकी अलग समस्या। 

अगर रहने को एक छत हो और खाने को भोजन हो,  बाक़ी तो हमारी बनाई हुई दिमागी समस्या है। ऋषि मुनि सही कह गएँ हैं कि अपनी जरूरतों से ज्यादा इकट्ठा करना ही बहुत सारी समस्याओं का मूल कारण है। 


भारत ने दुनिया को मन की शांति का यंत्र योग और अध्यात्म के माध्यम से दिया पर हम भारतीय खुद ही मोह माया और लालच में उलझे है। 


हमने दुनिया को बताया अपरिग्रह कि ज़रूरत से ज़्यादा कोई चीज इकट्ठा मत करो पर हम पूरा जीवन धन संपत्ति अर्जित करने में ही नष्ट कर देते हैं।

मृत्यु अटल है और मरना सबको है फिर मर मर के क्यों जियें। क्यों ना एक अच्छा जीवन जीकर मरें। शरीर अमर नहीं है पर ऐसा जीवन जियो कि युगों युगों तक नाम अमर रहे।


कभी काला बोलते हो, कभी कुरूप

कभी काला बोलते हो, कभी कुरूप। क्या मनुष्य के ऊपरी सतह का रंग रूप ही उसकी पहचान है। क्या उसकी सोच, उसके कर्म, उसकी काबिलियत का कोई मूल्य ही नहीं है। उसी ईश्वर उसे भी बनाया है जिसने तुम्हें बनाया। आपके ऊपर का रंग अलग है ना पर शरीर के अंदर तो सब का एक ही जैसे हैं। आपने कैसे निर्धारित किया कि कौन कुरूप है और कौन सुंदर। 

वैसे भारत में गोरा कौन है? भारत में तो या तो लोग भूरे हैं या साँवले। यूरोप वाले केवल यूरोप की मूल नस्ल को ही गोरा मानते हैं। यहाँ तक की थोड़े से सफेद ईरानी, इराक़ी, सीरिया और तुर्की के लोगों को गोरा नहीं मानते वो लोग। 


आप तो भारतीय संस्कृति के पोषक कहते हो ना अपने आपको, वह संस्कृति जो कहती है कि  कण कण में ईश्वर का वास है। फिर ऐसी कौन सी मानसिक विकृति बैठ गयी है आपके अंदर जो ईश्वर की बनाई हुई रचना को कुरूप बोलकर अपमानित करते  हो। 


और काला अगर ख़राब है तो फिर काजल क्यों लगाते हो? किसी भी काले वस्तु का उपयोग क्यों करते हो।  श्री कृष्ण और महाकाली की पूजा क्यों करते हो? अगर यही सोच है आपकी कि काला ख़राब है तो कृष्ण और काली के द्वार पर कौन सा मुँह लेकर जाते हो। आप उनसे नजर कैसे मिला पाते हो?   


मैं दुनिया भर के लोगों से मिलता हूँ और आपको बता दूँ की रंग रूप के आधार पर भेदभाव करने में सबसे आगे हम भारतीय लोग ख़ुद हैं। इस भेद भाव को कौन लाया यह सब जानते हैं। पर इतना कह सकता हूँ कि यह घटिया सोच भारतीय संस्कृति की हिस्सा नहीं थी। और जो इस भेद भाव में विश्वास करते हैं वह अपने आपको भारतीय नहीं कह सकते।