बीते कुछ महीनो से हिंदी सिनेमा से जुड़े सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु को लेकर लोगों में एक आक्रोश है। बहुत लोगों का मानना है कि यह आत्महत्या नहीं बल्कि उनकी हत्या की गयी है। उसके ज़िम्मेदार वो माने जा रहे हैं जो हिंदी सिनेमा जगत में ख़ास लोग हैं। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि उनकी हत्या की गयी है जिस तरह पूरा मुंबई सिनेमा जगत कुछ ख़ास लोगों की बपौति बन चुका है। सुशांत सिंह राजपूत बिहार के सामान्य परिवार से आते है और वो जिस तरह से कामयाबी की सीढ़ी चढ़ रहे थे वह निश्चय ही उन ख़ास लोगों के अधिपत्य के लिए ख़तरा थे। आम जनता में आक्रोश है। और यह आक्रोश आज का नहीं है यह वर्षों से आम जनमानस पर हो रही उपेछा का ग़ुस्सा है जो आज इकीसवी सदी में खुल के बाहर निकल रहा है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद और इसके पहले भी कुछ ख़ास लोग ही इस देश का संचालन करते थे। ख़ास लोग यह निर्धारित करते थे कि क्या ग़लत है क्या सही है। कभी आम जनमानस की भावना और संस्कृति को सम्मान नहीं दिया गया। लोगों के खान-पान, भेष-भूसा और भाषा-बोली का उपहास और तिरस्कार होता रहा और आज भी हो रहा है। कोई अपनी मातृ भाषा बोले तो वो देहाती गँवार है। कोई अगर भारतीय परिधान में है तो वो माडर्न नहीं है। यह सब इन चुनिदा ख़ास लोगों ने हमारे मन में डाला।
मै गाँव से निकला तब मै ढंग से खड़ी बोली नहीं बोल पाता था जैसे तैसे खड़ी बोली का अभ्यास हुआ तब ये आ गया कि अब अंग्रेज़ी सीखो। क्योंकि ख़ास लोगों को केवल अंग्रेज़ी ही समझ में आती थी। भाषाएँ सीखनी चाहिए पर भारत में अंग्रेज़ी केवल भाषा नहीं है बल्कि उच्चतम दर्जे की श्रेणी बन गयी। जब बाहर के लोग यह सुनते हैं की भारत में भारत के अंदर अंग्रेज़ी बोली जाती है तो उन्हें आश्चर्य होता है। पूरी दुनिया में उनके अपने देश में उनकी अपनी मातृ भाषा बोली जाती है।
आज नरेंद्र मोदी की व्यापक जन मानस में जो दीवानगी दिखती है उसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि उनमे आम जनमानस को कोई अपना दिखता है। नरेंद्र मोदी इसलिए इतने बड़े नेता नहीं बने कि वो भाजपा से हैं, भाजपा में बहुतेरे नेता होंगे पर आम जनमानस का हीरो नरेंद्र मोदी बने। और केवल नरेंद्र मोदी ही नहीं बल्कि मुलायम सिंह, लालू यादव, मायावती, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल कितने लोग हैं जिनको आम जनमानस ने अपना हीरो बनाकर इन ख़ास लोगों के सामने खड़ाकर इन ख़ास लोगों की नीव हिला दी। मैंने इंदिरा गांधी को नहीं देखा है पर उनके बारे जो भी भी पढ़ा सुना है उसमें एक बात ये मुझे समझ में आयी की वह भारत की सुरक्षा को लेकर निष्ठावान थी। महात्मा गांधी उस भारत की बात करते थे जो गाँवों में बसता है वो आम लोगों के भारत की बात करते थे।
मै छोटा था, समाचार में पढ़ा और सुना कि बिहार में राबड़ी देवी मुख्य मंत्री बनी। इसके साथ एक और भी बात जोड़ी गयी कि राबड़ी देवी पाँचवी पास भी नहीं हैं। उस महिला का उपहास उड़ाया गया कि वह पढ़ी लिखी नहीं है। जब बड़ा हुआ तो एक और जानकारी हुई कि सोनिया गांधी भी पाँचवी पास नहीं हैं पर वह गोरी दिखती हैं, अंग्रेज़ी बोलती हैं और एक बड़े ख़ास परिवार से जुड़ी हैं इसलिए ख़ास लोगों की नज़र में उनका माफ़ है। इन ख़ास लोगों ने एक पैमाना तय कर दिया कि जो अंग्रेज़ी माध्यम या बड़ी बड़ी डिग्री उपाधि वाला ही केवल ज्ञानी है। भारत में आर्यभट्ट, चरक, कबीर, रहीम, सूरदास, तुलसीदास, स्वामी विवेकानंद भारत की शिक्षा पद्धति से निकले हुए ज्ञानी थे।
धीरू भाई अम्बानी बिना किसी बड़े मैनज्मेंट कॉलेज में गए इतना बड़े व्यापार का साम्राज्य खड़ा कर दिया। बाबा रामदेव का उपहास उड़ाते हैं। कोका कोला, नेस्ले और यूनिलीवर पूरी दुनिया में कोई चुनौती नहीं दे पाया और इन्हें चुनौती मिली तो गाँव में एक ग़रीब यादव परिवार में जन्मे बाबा रामदेव से। पतंजलि कारोबार की सफलता भारत के लिए गर्व की बात है। यह भारत के साधारण आम की असाधारण क्षमता को दर्शाता है। जिनको नहीं मालूम वह एक लिज्जत पापड़ के बारे पढ़ें, 1959 में सात महिलायें 80 रुपए जोड़कर गृह उधोग शुरू किया और आज 800-900 करोड़ से भी ज़्यादा व्यापार खड़ा कर दिया।
पहले केवल समाचार पत्र, टेलिविज़न और रेडीओ होता था। यह सब अधिकतर ख़ास लोगों के द्वारा नियंत्रित था। इन सभी माध्यमों पर एकतरफ़ा प्रवचन होता था। वह कालखंड उनके लिए स्वर्णिम काल था कि उनसे कोई प्रश्न भी नहीं कर सकता था। अभी सोशल मीडिया है कोई भी विचार रख सकता है लोगों से प्रश्न कर सकता है। अभी तो ख़ास लोगों को नींद उड़ चुकी है कि इन लोगों में आवाज़ कैसे आ गयी। इनके पास प्रश्नो के उत्तर नहीं हैं। इनके कारनामो पर लोग खुलकर बोलने और लिखने लगे। तो अब ख़ास लोग इस आम जनमानस के आक्रोश को कहते हैं कि ये सब भक्त हैं, ट्रोल हैं, जहिल, गँवार, जातिवादी, कट्टरपंथी वगैरह वगैरह हैं।
ख़ास लोग भारत को इंडिया बोलते थे जो नाम अंग्रेज़ देकर गए थे। ख़ास लोग हमसे भी कहे कि इंडिया बोलो नहीं तो तुम माडर्न नहीं हो। हम भी अपने देश का नाम भारत की जगह इंडिया बोलने लगे। जब भारत के अंदर भारत को इंडिया बोला जाएगा तो आप कैसे उम्मीद करते हो कि बाहर वाला भारत बोलेगा। ख़ास लोगों के लिए यह देश इंडिया था, ये लोग दिखने में तो भारतीय जैसे ही दिखते हैं पर इनके अंदर आज भी ब्रिटिश साम्राज्य के सिपाही बैठे हैं और मैकाले की आत्मा इन्हें छोड़ नहीं रही।
शहर में ग़रीब की झुग्गी झोपड़ी इन ख़ास लोगों की नज़र में इनके शहर के सुंदरता में दाग़ लगा देती है। ग़रीब एक दस बाई दस (10x10) की झोपड़ी में पूरा परिवार पाल लेता है। ये ख़ास लोग बड़े बड़े बंगले बनाकर पर्यावरण की बत्ती लगा रहे हैं पर इनका माफ़ है क्योंकि ये बड़े लोग हैं। किस बात के बड़े लोग हैं, ये लोग महँगे महँगे स्कूल और कॉलेज से पढ़ कर आते हैं पर इनको ना पर्यावरण की महत्व मालूम होता है और ना ही इनके हृदय में ग़रीब के लिए कोई करुणा है, मनुष्य के रूप में मानवताविहीन बस एक मशीन हैं ये ख़ास लोग। और कौन सा सुंदर शहर? मोटरगाड़ी के धुवाँ और धूल से भरा शहर, ना स्वच्छ हवा है, ना पीने का साफ़ पानी, ना पेड़ है और ना पक्षी, नदी को एक गंदा नाला बना रखा है। इ बड़ा बड़ा शहर जो ख़ास लोगों के लिए तो स्वर्ग जैसा होगा पर शहर में रहने वाला ग़रीब और मध्यमवर्गीय परिवार पूरा जीवन संघर्ष करता है।
चेहरे पर लगाने वाली एक क्रीम बेचते हैं ये लोग, कहते हैं इस क्रीम को लगाओ, गोरे हो जाओगे और उससे कॉन्फ़िडेन्स यानी कि आत्मविश्वास बढ़ेगा। क्यों गोरा बनना है? और काला अगर ख़राब है तो फिर काजल क्यों लगाते हो? श्री कृष्ण और महाकाली की पूजा क्यों करते हो? अगर यही सोच है कि काला ख़राब है तो कृष्ण और काली के द्वार पर कौन सा मुँह लेकर जाते हो।
इकीसवीं सदी में यह बिलकुल स्पष्ट है कि इन ख़ास लोगों का तख़्तापलट निश्चित है। पूरे भारत में एक व्यापक जन आक्रोश है, और भारत अपनी मूल आत्मा से फिर से जुड़ेगा और जो भी इस आम जन मानस की आवाज़ उठाएगा वह इस आम जन मानस का नायक होगा।